Tuesday 18 April 2017

तुम बहुत याद आये


आज न जाने क्यों बादलों को देख, मन में कई जज़्बात आये 
इन भीगे आसमानों में तुम बहुत याद आये 

तेरे तल्ख़ी - ए - इश्क़ की मस्ती से झूम उठा हूँ आज 
मदमस्त सावन की इन घटाओं में, तुम बहुत याद आये 

तुम नहीं हो जब, तो है मेरी ख्वाइशें बे - इन्तहा 
कि ख्वाईश कोई भी करूँ तो बस तुम याद आये 

कितने शीरी तेरे लबों की मेरे लबों पे छूटे हुए हैं 
की आज अपने होठों के लम्स में भी तुम  याद आये 

तेरी खुशबू; तेरी अज़ान - सी उठती हुई खुशबू 
क़ायनात के हर ज़र्रों में मुझे तुम याद आये 

यूँ तो बैठा हूँ तुमसे कुछ लम्हों की दूरी पर 
पर हर लम्हों में आज - बस तुम याद आये 

तेरा इंतज़ार भी है और मुझे कुछ रोज़गार भी 
पर दिन भर तेरी कसम, तुम बहुत याद आये 

- रविशेखर मिश्रा

ये मौसमों के तेवर हैं या इम्तिहां हैं मेरे हौंसलों के



ये मौसमों  के तेवर हैं या इम्तिहां हैं मेरे हौंसलों के 
कि हर शख़्स मुझे देखता  है आज खफा हो के 

कभी मेरी बुलंदी का शोर था यहां 
आज ख़ामोशी भी चलती है मुझसे नज़र बचा के 

इसी जगह आलम मेरे फ़सानो पे इतराता था 
इसी जगह चुप चाप बैठा हूँ जहां से घबरा के 

थी हर नज़र में आरज़ू मेरे वजूद को छूने की 
है हर नज़र में आरज़ू मुझसे नज़रें चुराने के

Saturday 24 May 2014

दिन सुहाना था, शाम सुहानी थी 
तेरी पहलु में मेरी हर रात दीवानी थी 

इस फ़लक पे जो आज ग़ुबार देखते हो 
कल तलक यहाँ, बिखरी हुई चांदनी थी 

वीरान - सा ये समंदर, जो अफ़साने ढूंढता है 
कभी इसमें किसी चाँद के कश्ती की कहानी थी 

टूटा हुआ ये बादा - ओ - ज़ाम, और बिखरी हुई फज़ाएँ 
इसी मयखाने में कभी, मेरी जवानी थी 

उसे भुलाने की ता-उम्र कोशिश तो बहुत की मग़र 
मेरे वज़ूद में बस - उसी की कहानी थी 
                      
                            - रविशेखर मिश्रा

Friday 7 March 2014

कभी यूँ होता है कि
दूर से कुछ आवाज़, पुकारती हुई सी
कानों तक दौड़ के आती है
और रह रह कर हमें पास बुलाती है
मगर इतनी दूर निकल के
आवाज़ कि तरफ जब नज़रें ठहरती हैं
कोई शक्ल दिखाई नहीं देती।
इतनी दूर निकल गए होते हैं हम
कि शक्लों की यादें भी धुंधली लगती है
और कुछ देर तक हमें बुलाकर वो आवाज़ -
यूँ ही कुछ कहने कि कोशिश में, थक कर
बे - आवाज़ ही लौट जाती है।
बहुत दूर निकल आया मैं भी मगर,
बचपन कि वो खनक
और गाँव का वो बचपन;
अब भी कानों में शोर मचाती है।
                                  - रविशेखर मिश्रा
चलो ना - बादलों के पार चलें
चाँद कि कश्ती में -
आसमां का सागर पार करेंगे
राह में कोई शय्यारा जागता मिल जाये तो,
उसे भी साथ ले लेंगे
और यूँ ही हँसते - खेलते, गैलेक्सी के उस पार पहुंचेंगे
कोई राज़ है वहाँ शायद
जो उसने हमसे छुपा रखा है
उस राज़ कि पर्तें खोलेंगे
कुछ इस तरह आज तेरी आँखों से दिल तक का
फासला तय करेंगे
                               - रविशेखर मिश्रा
कुछ, ख़ाक के ज़र्रे उड़े थे, 
ख़्वाबों कि कुछ किरचियाँ भी चुभी थी
उस दिन यादों का एक सैलाब आया तो,
 कुछ रिश्तों के टूटने की खनक भी हुई थी
यूँ याद तो अब कुछ भी नहीं मगर
किसी बात में शायद तेरी झ़लक मिली थी
ज़ख्म तो समय के साथ भर ही जाते हैं
ज़ख्म के निशाँ ने पर पुरानी बात बतायी थी
रोने का कुछ सबब नहीं था उस दिन मगर
नया कोई रिश्ता देख, आँख भर आयी थी
                                               - रविशेखर मिश्रा

तेरे ख़यालों के चादर को ओढ़ रखा है मैंने
तुझे, मेरे होने की वजह बना रखा है मैंने
मेरा वजूद तो कबका बिखर गया होता
तेरे तसव्वुर से, खुद को समेट रखा है मैंने
सब अलफ़ाज़ मेरे ख़त्म भी हो गए तो क्या;
तुझे अल्फ़ाज़ों से पहले सोच रखा है मैंने
ज़िस्म के खोल में अब क़ैद नहीं रहा मैं
तुझे रूह के ज़र्रे ज़र्रे में डुबो रखा है मैंने
सिर्फ एक तेरे होने से ही तो मेरा होना है
मेरे क़ायनात का तुझे खुदा बना रखा है मैंने
अब क्या काम, क्या होश, क्या जहां
अपना सब कुछ तो, तुझे बन ऱखा है मैंने
तू मेरा खुद है, मेरे दिल के ज़मीन पे क्यों आये
इसलिए तुझे खुद से अनजान रखा है मैंने
फिर भी सदियों से तेरे आने का इंतेज़ाऱ है
तेरे इंतज़ार से सदियाँ महका रखा है मैंने
खैर, जो कभी फुरसत हो तुझे तो मुझसे पूछना
कि तेरे लिए खुद को क्या क्या बना रखा है मैंने
                                                      - रविशेखर मिश्रा