Friday 7 March 2014

कुछ, ख़ाक के ज़र्रे उड़े थे, 
ख़्वाबों कि कुछ किरचियाँ भी चुभी थी
उस दिन यादों का एक सैलाब आया तो,
 कुछ रिश्तों के टूटने की खनक भी हुई थी
यूँ याद तो अब कुछ भी नहीं मगर
किसी बात में शायद तेरी झ़लक मिली थी
ज़ख्म तो समय के साथ भर ही जाते हैं
ज़ख्म के निशाँ ने पर पुरानी बात बतायी थी
रोने का कुछ सबब नहीं था उस दिन मगर
नया कोई रिश्ता देख, आँख भर आयी थी
                                               - रविशेखर मिश्रा

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