Friday 7 March 2014

कभी यूँ होता है कि
दूर से कुछ आवाज़, पुकारती हुई सी
कानों तक दौड़ के आती है
और रह रह कर हमें पास बुलाती है
मगर इतनी दूर निकल के
आवाज़ कि तरफ जब नज़रें ठहरती हैं
कोई शक्ल दिखाई नहीं देती।
इतनी दूर निकल गए होते हैं हम
कि शक्लों की यादें भी धुंधली लगती है
और कुछ देर तक हमें बुलाकर वो आवाज़ -
यूँ ही कुछ कहने कि कोशिश में, थक कर
बे - आवाज़ ही लौट जाती है।
बहुत दूर निकल आया मैं भी मगर,
बचपन कि वो खनक
और गाँव का वो बचपन;
अब भी कानों में शोर मचाती है।
                                  - रविशेखर मिश्रा

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