Friday 7 March 2014

कभी यूँ होता है कि
दूर से कुछ आवाज़, पुकारती हुई सी
कानों तक दौड़ के आती है
और रह रह कर हमें पास बुलाती है
मगर इतनी दूर निकल के
आवाज़ कि तरफ जब नज़रें ठहरती हैं
कोई शक्ल दिखाई नहीं देती।
इतनी दूर निकल गए होते हैं हम
कि शक्लों की यादें भी धुंधली लगती है
और कुछ देर तक हमें बुलाकर वो आवाज़ -
यूँ ही कुछ कहने कि कोशिश में, थक कर
बे - आवाज़ ही लौट जाती है।
बहुत दूर निकल आया मैं भी मगर,
बचपन कि वो खनक
और गाँव का वो बचपन;
अब भी कानों में शोर मचाती है।
                                  - रविशेखर मिश्रा
चलो ना - बादलों के पार चलें
चाँद कि कश्ती में -
आसमां का सागर पार करेंगे
राह में कोई शय्यारा जागता मिल जाये तो,
उसे भी साथ ले लेंगे
और यूँ ही हँसते - खेलते, गैलेक्सी के उस पार पहुंचेंगे
कोई राज़ है वहाँ शायद
जो उसने हमसे छुपा रखा है
उस राज़ कि पर्तें खोलेंगे
कुछ इस तरह आज तेरी आँखों से दिल तक का
फासला तय करेंगे
                               - रविशेखर मिश्रा
कुछ, ख़ाक के ज़र्रे उड़े थे, 
ख़्वाबों कि कुछ किरचियाँ भी चुभी थी
उस दिन यादों का एक सैलाब आया तो,
 कुछ रिश्तों के टूटने की खनक भी हुई थी
यूँ याद तो अब कुछ भी नहीं मगर
किसी बात में शायद तेरी झ़लक मिली थी
ज़ख्म तो समय के साथ भर ही जाते हैं
ज़ख्म के निशाँ ने पर पुरानी बात बतायी थी
रोने का कुछ सबब नहीं था उस दिन मगर
नया कोई रिश्ता देख, आँख भर आयी थी
                                               - रविशेखर मिश्रा

तेरे ख़यालों के चादर को ओढ़ रखा है मैंने
तुझे, मेरे होने की वजह बना रखा है मैंने
मेरा वजूद तो कबका बिखर गया होता
तेरे तसव्वुर से, खुद को समेट रखा है मैंने
सब अलफ़ाज़ मेरे ख़त्म भी हो गए तो क्या;
तुझे अल्फ़ाज़ों से पहले सोच रखा है मैंने
ज़िस्म के खोल में अब क़ैद नहीं रहा मैं
तुझे रूह के ज़र्रे ज़र्रे में डुबो रखा है मैंने
सिर्फ एक तेरे होने से ही तो मेरा होना है
मेरे क़ायनात का तुझे खुदा बना रखा है मैंने
अब क्या काम, क्या होश, क्या जहां
अपना सब कुछ तो, तुझे बन ऱखा है मैंने
तू मेरा खुद है, मेरे दिल के ज़मीन पे क्यों आये
इसलिए तुझे खुद से अनजान रखा है मैंने
फिर भी सदियों से तेरे आने का इंतेज़ाऱ है
तेरे इंतज़ार से सदियाँ महका रखा है मैंने
खैर, जो कभी फुरसत हो तुझे तो मुझसे पूछना
कि तेरे लिए खुद को क्या क्या बना रखा है मैंने
                                                      - रविशेखर मिश्रा
मिलने वालों की तरह रोज मिला करें
कोई राब्ता न सही, चलो आँखों में ही बसा करें

यूँ  खामोश रहने का भी तो कोई सबब नहीं
और ग़र है, तो मिल के खामोश हुआ करें
ये फासला जो मुझमे और तुझमे है
थोडा थोडा इसे ही मिटाया करें
माना मरासिम नहीं तो मिल के क्या करोगे
तो चलो, मिल के कुछ न किया करें

पर मिलने वालों कि तरह रोज मिला करें
                                                   - रविशेखर मिश्रा